28 Apr 2011

बाबा घुश्मेश्वर जी की उत्पत्ति : बाबा घुइसरनाथ धाम

(शिव महापुराण के अनुसार)
श्री शिवमहापुराण में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार बतायी गई है– नदी के समीप में भारद्वाज कुल में उत्पन्न एक सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्म को जानने वाला) ब्राह्मण निवास करते थे। सदा शिव धर्म के पालन में तत्पर रहने वाली उनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। वह कुशलतापूर्वक अपने घर के कार्यों को करती हुई पति की भी सब प्रकार से सेवा करती थी। ब्राह्मण श्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं तथा अतिथियों के पूजक थे। वे वैदिक सनातन धर्म के नियम का अनुसरण करते हुए नित्य अग्निहोत्र करते थे। त्रिकाल सन्ध्या (सुबह, दोपहर और शाम) करने के कारण उनके शरीर की कान्ति सूर्य की भाँति उद्दीप्त हो रही थी। वेद शास्त्रों के मर्मज्ञ (ज्ञाता) होने के कारण वे शिष्यों को पढ़ाया भी करते थे। वे धनवान तथा दानी भी थे। वे सज्जनता तथा विविध सद्गुणों के अधिष्ठान अर्थात पात्र थे। स्वयं शिव भक्त होने के कारण सदा शिव जी आराधना में लगे रहते थे तथा उन्हें शिव भक्त परम प्रिय थे। शिव भक्त भी उन्हें बड़ा प्रेम देते थे।
इतना सब कुछ होने पर भी सुधर्मा को कोई सन्तान न थी। यद्यपि उस ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण का कोई कष्ट न था, किन्तु उनकी धर्मपत्नी सुदेहा बड़ी दु:खी रहती थी। उसके पड़ोसी तथा अन्य लोग भी उसे नि:सन्तान होने का ताना मारा करते थे, जिसके कारण अपने पति से बार-बार पुत्रप्राप्ति हेतु प्रार्थना करती थी। उसके पति उस मिथ्या संसार के सम्बन्ध में उसे ज्ञान का उपदेश दिया करते थे, फिर भी उसका मन नहीं मानता था। उस ब्राह्मणदेव ने भी पुत्रप्राप्ति के लिए कुछ उपाय किये, किन्तु असफल रहे। उसके बाद अत्यन्त दु:खी उस ब्राह्मणी ने अपनी छोटी बहन घुश्मा के साथ अपने पति का दूसरा विवाह करा दिया। सुधर्मा ने द्वितीय विवाह से पूर्व अपनी पत्नी को बहुत समझाया था कि तुम इस समय अपनी बहन से प्यार कर रहीं हो, इसलिए मेरा विवाह करा रही हो, किन्तु जब इसे पुत्र उत्पन्न होगा,तो तुम उससे ईर्ष्या करने लगोगी। सुदेहा ने संकल्प लिया था कि वह कभी भी अपनी बहन से ईर्ष्या नहीं करेगी।विवाह के बाद घुश्मा एक दासी की तरह अपनी बड़ी बहन की सेवा करती थी तथी सुदेहा भी उससे अतिशय प्यार करती थी। अपनी बहन की शिव भक्ति से प्रभावित होकर उसके आदेश के अनुसार घुश्मा भी शिव जी का एक सौ एक पार्थिव लिंग (मिट्टी शिवलिंग) बनाकर पूजा करती थी। पूजा करने के बाद उन शिवलिंगों को समीप के तालाब में विसर्जित कर देती थी–
कनिष्ठा चैव पत्नी स्वस्रनुज्ञामवाप्य च। पार्थिवान्सा चकाराशु नित्यमेकोत्तरं शतम्।।
विधानपूर्वकं घुश्मा सोपचारसमन्वितम्।वृत्वा तान्प्राक्षिपत्तत्र तडागे निकटस्थिते।।
एवं नित्यं सा चकार शिवपूजां सवकामदाम्।विसृज्य पुनरावाह्य तत्सपर्याविधानत:।।
कुर्वन्त्या नित्यमेवं हि तस्या: शंकरपूजनम्।लक्षसंख्याऽभवत्पूर्णा सर्वकाम फलप्रदा।।
कृपया शंकरस्यैव तस्या: पुत्रो व्यजायत।सुन्दर: सुभगश्चैव कल्याणगुणभाजन:।।
शंकर की कृपा से घुश्मा को एक सुन्दर भाग्यशाली तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र प्राप्ति से जब घुश्मा का कुछ मान बढ़ गया, तब सुदेहा को ईर्ष्या पैदा हो गई। समय के साथ जब पुत्र बड़ा हो गया, तो विवाह कर दिया गया और पुत्रवधू भी घर में आ गई। यह सब देखकर सुदेहा और अधिक जलने लगी। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जिसके कारण उसने अनिष्ट करने की ठान ली। एक दिन रात्रि में उसने सोते समय घुश्मा के पुत्र के शरीर को चाकू से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और शव को समेटकर वहीं पास के सरोवर में डाल दिया, जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन करती थी। सुदेहा शव को तालाब में फेंककर आ गई और आराम से घर में सो गई।प्रतिदिन की भाँति घृश्मा अपने पूजा कृत्य में लग गई और ब्राह्मण सुधर्मा भी अपने नित्यकर्म में लग गये। सुदेहा भी जब सुबह उठी तो, उसके हृदय में जलने वाली ईर्ष्या की आग अब बुझ चुकी थी, इसलिए वह भी आनन्दपूर्वक घर के काम-काज में जुट गई। जब बहू की नींद खुली, तो उसने देखा कि उसका पति बिस्तर पर नहीं है। बिस्तर भी ख़ून में सना है तथा शरीर के कुछ टुकड़े पड़े दिखाई दे रहे हैं। यह दृश्य देखकर दु:खी बहू ने अपनी सास घुश्मा के पास जाकर निवेदन किया और पूछा कि आपके पुत्र कहाँ गये हैं? उसने रक्त से भीगी शैय्या की स्थिति भी बताई और विलाप करने लगी– ‘हाय मैं तो मारी गयी। किसने यह क्रूर व्यवहार किया है?’ इस प्रकार वह पुत्रवधू करुण विलाप करती हुई रोने लगी।
सुधर्मा की बड़ी पत्नी सुदेहा भी उसके साथ ‘हाय!’ ऐसा बोलती हुई शोक में डूब गई। यद्यपि वह ऊपर से दु:ख व्यक्त कर रही थी, किन्तु मन ही मन बहुत प्रसन्न थी। अपनी प्रिय वधू के कष्ट और क्रन्दन (रोना) को सुनकर भी घुश्मा विचलित नहीं हुई और वह अपने पार्थिव-पूजन व्रत में लगी रही। उसका मन बेटे को देखने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं हुआ। इसी प्रकार ब्राह्मण सुधर्मा भी अपने नित्य पूजा-कर्म में लगे रहे। उन दोनों ने भगवान के पूजन में किसी अन्य विघ्न की चिन्ता नहीं की। दोपहर को जब पूजन समाप्त हुआ, तब घुश्मा ने अपने पुत्र की भयानक शैय्या को देखा। देखकर भी उसे किसी प्रकार का दु:ख नहीं हुआ।उसने विचार किया, जिसने मुझे यह पुत्र दिया है, वे ही उसकी रक्षा भी करेंगे। वे तो भक्तप्रिय हैं, कालों के भी काल हैं तथा सत्पुरुषों के मात्र आश्रय हैं। वे ही सर्वेश्वर प्रभु हमारे भी संरक्षक हैं। वे माला गूँथने वाले माली की तरह जिनको जोड़ते हैं, उन्हें अलग-अलग भी करते हैं। मैं अब चिन्ता करके क्या कर सकती हूँ। इस प्रकार सांसारिक तत्त्वों का विचार कर उसने शिव के भरोसे धैर्य धारण कर लिया, किन्तु शोक का अनुभव नहीं किया। प्रतिदिन की तरह वह 'नम: शिवाय' का उच्चारण करती हुई उन पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर के तट पर गई। जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर वापस होने की चेष्टा की, तो उसका अपना पुत्र उस सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा। अपने पुत्र को देखकर घुश्मा के मन में न तो प्रसन्नता हुई और न ही किसी प्रकार का कष्ट हुआ। इतने में ही परम सन्तुष्ट ज्योति: स्वरूप महेश्वर शिव उसके सामने प्रकट हो गये। 
भगवान शिव ने कहा कि ‘मै’ तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम वर माँगों। तुम्हारी सौत ने इस बच्चे को मार डाला था, अत: मैं भी उसे त्रिशूल से मार डालूँगा। घुश्मा ने श्रद्धा-निष्ठा के साथ महेश्वर को प्रणाम किया और कहा कि सुदेहा मेरी बड़ी बहन है, कृपया आप उसकी रक्षा करे। शिव ने कहा कि सुदेहा ने तुम्हारा बड़ा अनिष्ट किया है, फिर तुम उसका उपकार क्यों करना चाहती हो? वह दुष्टा तो सर्वदा मार डालने के योग्य है। 

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